क्या समाजवादी पार्टी के सहयोगी दल राष्ट्रीय लोकदल के अध्यक्ष जयंत चौधरी खिचड़ी, पुलाव और बिरयानी का चावल छोड़कर खीर खायेंगे? यह सवाल इसलिए क्योंकि स्वयं जयंत चौधरी ने ट्वीट किया है कि जब चावल ही खाना है तो खीर क्यों ना खाई जाये! दरअसल, उत्तर प्रदेश के सियासी समीकरण में पिछले कुछ समय से जबदरस्त हलचल है। दोस्ती की कसमें खाने वाले दुश्मन हुए जा रहे हैं तो दुश्मनों से गलबहियां करके दोस्ती के तराने गाये जा रहे हैं। यूपी में लोकसभा चुनाव से पहले राजनीतिक दलों का ऊंट किस करवट बैठेगा, इसका अनुमान लगाना मुश्किल हो रहा है।
उत्तर प्रदेश में भाजपा के सामने सबसे मजबूत सपा-रालोद गठबंधन में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। दोनों दलों के नेताओं की तरफ से ऐसे बयान आ रहे हैं, जिससे लग रहा है कि यह गठबंधन भी जल्द टूट जायेगा। विधानसभा चुनाव में भाजपा गठबंधन के सामने सपा ने रालोद, सुभासपा एवं अपना दल (कमेरावादी) का मजबूत विकल्प तैयार किया था, लेकिन भाजपा की सत्ता में वापसी के बाद से ही गठबंधन में उठापटक जारी है। सबसे पहले इस गठबंधन से सुभासपा के नेता ओम प्रकाश राजभर ने किनारा किया, अब जयंत चौधरी भी उसी नक्शेकदम पर हैं।
माना जा रहा है कि लोकसभा चुनाव से पहले जयंत चौधरी भाजपा खेमे में आ जायेंगे। अंदरखाने जयंत चौधरी सीटों का समीकरण बैठाने में लगे हुए हैं। जयंत को भी साफ नजर आ रहा है कि समाजवादी पार्टी गठबंधन में शामिल रहने से भविष्य में कोई फायदा नहीं है। सपा प्रदेश की सत्ता से बाहर है, और केंद्र में भी उसका कोई निश्चित भविष्य नहीं है। नीतीश कुमार के नेतृत्व में पक रही गठबंधन खिचड़ी का भविष्य भी स्पष्ट नहीं है। इस गठबंधन से प्रधानमंत्री कौन बनेगा, इसको लेकर भी रार तय है, इसलिए जयंत चौधरी खिचड़ी, बिरयानी, पुलाव का चावल खाने की बजाय खीर खाना ज्यादा मुनासिब मान रहे हैं।
भाजपा को भी इस बेल्ट में सहयोगियों की जरूरत है। नीतीश कुमार के एनडीए से बाहर होने के बाद बिहार भाजपा की सबसे कमजोर कड़ी बन गया है। यूपी-बिहार की 120 सीटों पर एनडीए ने 2014 में 103 तथा 2019 में 105 सीटों पर जीत हासिल की थी, जो उसकी कुल जीती गई सीटों के 30 फीसदी से ज्यादा है। बिहार में होने वाले संभावित नुकसान की भरपायी भाजपा यूपी में अधिक से अधिक सीट जीतकर करना चाहती है।
रालोद और सुभासपा जैसे दलों को अपने साथ जोड़ना भाजपा के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है, और आवश्यक भी। दूसरी तरफ, जयंत चौधरी को भी अपनी पार्टी चलाने के लिये संसाधनों की जरूरत है। संसाधन के बिना पार्टी चलाना आसान नहीं है, और सत्ता में भागीदारी के बगैर संसाधन जुटाना सरल काम नहीं है। खासकर उन दलों के लिए जो निश्चित क्षेत्र में जाति आधारित वोट बैंक की राजनीति करती हैं। खबर है कि भाजपा जयंत चौधरी को अपनी पार्टी में लाकर पश्चिम के जाटलैंड में अपनी जीत सुनिश्चित करना चाहती है। भाजपा की नजर आजाद पार्टी के चंद्रशेखर पर भी है।
पश्चिमी यूपी में जाट और दलित को साध लेने से कई सीटों के समीकरण बदल सकते हैं। भाजपा विधानसभा चुनाव में इस रणनीति का फायदा भी उठा चुकी है। फिलहाल भाजपा की प्राथमिकता जयंत चौधरी हैं। किसान आंदोलन के बाद बदले समीकरण में जाट वोटों में बंटवारा रोकने तथा राजस्थान में अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए भाजपा रालोद को अपने साथ जोड़ना चाहती है। जाट वोटों के लिये भाजपा ने भूपेंद्र चौधरी को यूपी का अध्यक्ष बनाया तो जगदीप धनखड़ को उपराष्ट्रपति बनाकर उन्हें खुश करने की कोशिश पहले ही कर चुकी है।
भाजपा जयंत चौधरी को प्रदेश तथा केंद्र की सत्ता में भागीदारी देने को तैयार है, लेकिन बात सीटों पर आकर अटक जा रही है। भाजपा केंद्र और प्रदेश में होने वाले संभावित विस्तार में रालोद को भी शामिल करना चाहती है, लेकिन सीटों का समीकरण फाइनल नहीं हो पा रहा है। केंद्र का आखिरी विस्तार भी इसी कारण टलता जा रहा है। फिलहाल सपा गठबंधन में शामिल रालोद ने अपने पत्ते नहीं खोले हैं, लेकिन पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष राम आशीष राय ने यूपी की एक दर्जन सीटों पर चुनाव लड़ने की तैयारी की बात कह कर पासा फेंक दिया है।