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भारत में आत्महत्या की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है. आत्महत्या के मामले लगातार बढ़ते जा रहे हैं। बीमारियों के कारण आत्महत्याओं की संख्या बहुत ज्यादा नहीं है लेकिन 20 से 35 वर्ष के आयु वर्ग में जान देने वालों की संख्या सबसे ज्यादा है। 14 से 20 वर्ष के आयु वर्ग में भी आत्महत्या के मामले अभिभावकों के लिए चिंता पैदा करने वाले हैं।

 

आत्महत्या का मूल कारण अवसाद होता है। जिनका मनोबल मजबूत होता है, वे जल्दी उबर जाते हैं लेकिन अन्य लोग हालात के आगे खुद को बेबस समझकर जान दे देते हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के मुताबिक गत वर्ष 1.64 लाख लोगों ने विभिन्न कारणों से जान दे दी।

यह संख्या वर्ष 2020 की तुलना में 7.2 प्रतिशत अधिक है। दुनिया में हर वर्ष सात लाख लोग आत्महत्या करते हैं और इस दुर्भाग्यपूर्ण मामले में भारत शीर्ष पर है. जैसे-जैसे भौतिक साधन बढ़ रहे हैं, आत्महत्या करने वालों की तादाद भी बढ़ रही है। 2017 से 2021 के बीच चार साल में आत्महत्या करने वालों की संख्या 26 प्रतिशत से ज्यादा बढ़ गई। आत्महत्या को रोकना सरकार का काम नहीं है और सरकार यह काम कर भी नहीं सकती. यह जिम्मेदारी परिवार तथा समाज की है।

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सबसे ज्यादा जिम्मेदारी तो परिवार की ही है। अकेलापन, शिक्षा तथा करियर में जबर्दस्त प्रतिस्पर्धा, प्रेम में विफलता, बीमारियां, उम्मीदों के मुताबिक नतीजे न मिलना, घर का नकारात्मक माहौल जैसे कई कारण हैं जो युवा पीढ़ी को अवसाद में ले जाते हैं। अवसाद के लक्षण बहुत साफ नजर आ जाते हैं।

अवसाद में जाने के बाद संबंधित व्यक्ति के हाव-भाव, बोलचाल, उसका व्यवहार बदल जाता है। ये परिवर्तन स्पष्ट दिखते हैं लेकिन परिवार तथा आसपास के लोग पीड़ित की बीमारी समझ नहीं पाते। बचपन में अगर बच्चों को सही मार्गदर्शन और माता-पिता का पर्याप्त स्नेह एवं संबल मिले तो आगे चलकर बच्चे किसी भी परिस्थिति का सामना करने के लिए मानसिक रूप से मजबूत हो जाते हैं।

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यही नहीं, उन्हें यह विश्वास रहता है कि जहां जरूरत पड़ेगी परिवार और उसके शुभचिंतक साथ खड़े रहेंगे। एकल परिवारों का चलन बढ़ जाने के कारण बच्चे अकेलापन महसूस करने लगते हैं। उन्हें समझ में नहीं आता कि वह समस्याओं से किस प्रकार निपटें, अपनी भावनाएं किसके पास व्यक्त करें। कम समय में ज्यादा से ज्यादा कमाने की लालसा, घर चलाने के लिए पति-पत्नी का नौकरी करना बच्चों को अकेला छोड़ देता है। इससे वह अवसाद का शिकार हो जाते हैं।

परीक्षा में अच्छे नंबर लाकर किसी नामी संस्थान में दाखिला पाने की जद्दोजहद के बाद अगर अफलता हाथ लगती है तो अक्सर ठीकरा बच्चों पर ही फोड़ दिया जाता है। जहां उसे हौसला देने की जरूरत पड़ती है, वहां झिड़कियां मिलती हैं। परिवार को यह सोचना पड़ेगा कि बच्चों के सबसे पहले और सबसे बड़े मनोचिकित्सक वह खुद हैं। बच्चों पर अगर वह समय निकाल कर ध्यान दें तो वे अवसाद में जाने से बच सकते हैं।

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आत्महत्या रोकने के लिए यह भी जरूरी है कि घर के भीतर और घर के बाहर चाहे वह शैक्षणिक संस्थान हो या कार्यस्थल, सकारात्मक माहौल हो। सफलता और असफलता को सहज ढंग से लेने की मानसिकता परिवार तथा समाज मिलकर बना सकते हैं।

जिस संख्या में स्कूल-कॉलेज के छात्र और युवा नौकरीपेशा हताश होकर जान दे रहे हैं, उससे मनोचिकित्सकों की भूमिका महत्वपूर्ण जरूर है लेकिन वे कुछ दिलासा ही दे सकते हैं, कुछ दवा दे सकते हैं। असली भूमिका तो परिजनों की है क्योंकि भावनात्मक संबल किसी को भी अवसाद में जाने से बचा सकता है और उससे उबार भी सकता है।