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ठपुतली विश्व का प्राचीनतम रंगमंच पर खेला जाने वाला मनोरंजक, शिक्षाप्रद एवं कला-संस्कृतिमूलक कार्यक्रम है. कठपुतलियों को विभिन्न प्रकार के गुड्डे गुड़ियों, जोकर आदि पात्रों के रूप में बनाया जाता है और अनेक प्राचीन कथाओं को इसमें मंचित किया जाता है.

 

लकड़ी अर्थात काष्ठ से इन पात्रों को निर्मित किए जाने के कारण अर्थात काष्ठ से बनी पुतली का नाम कठपुतली पड़ा. प्रत्येक वर्ष 21 मार्च को विश्व कठपुतली दिवस मनाया जाता है. इस दिवस का उद्देश्य इस प्राचीन लोक कला को जन-जन तक पहुंचना तथा आने वाली पीढ़ी को इससे अवगत कराना है. पुतली कला कई कलाओं का मिश्रण है, जिसमें-लेखन, नाट्य कला, चित्रकला, वेशभूषा, मूर्तिकला, काष्ठकला, वस्त्र-निर्माण कला, रूप-सज्जा, संगीत, नृत्य आदि शामिल हैं.

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भारत में यह कला प्राचीन समय से प्रचलित है, जिसमें पहले अमर सिंह राठौड़, पृथ्वीराज, हीर-रांझा, लैला-मजनूं, शीरी-फरहाद की कथाएं ही कठपुतली खेल में दिखाई जाती थीं, लेकिन अब सामाजिक विषयों के साथ-साथ हास्य-व्यंग्य तथा ज्ञान संबंधी अन्य मनोरंजक कार्यक्रम भी दिखाए जाने लगे हैं. पुतलियों के निर्माण तथा उनके माध्यम से विचारों के संप्रेषण में जो आनंद मिलता है, वह बच्चों के व्यक्तित्व के चहुंमुखी विकास में सहायक तो होता ही है, यह अनेक सामाजिक-सांस्कृतिक एवं शैक्षणिक विषयों के संप्रेषण का भी प्रभावी माध्यम है.

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भारत में सभी प्रकार की पुतलियां पाई जाती हैं, यथा- धागा पुतली, छाया पुतली, छड़ पुतली, दस्ताना पुतली आदि.
राजस्थान में कठपुतली कला का समृद्ध इतिहास है. कठपुतलियों को खेल माना जाता है जो कि मध्ययुग में भाट समुदाय से शुरू हुआ था. भाट समुदाय के लोग गांव-गांव जाकर कठपुतली का खेल दिखाते थे.

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