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उत्तर प्रदेश में पिछड़ावर्ग की राजनीति का स्वरूप अब बदल गया है। मुलायम सिंह के जमाने में यादव समुदाय का वर्चस्व था। लेकिन योगी राज में उनका प्रभाव कम हो गया।

 

2022 के चुनावी नतीजों से यह निष्कर्ष निकलता है कि अब कुर्मी समुदाय उत्तर प्रदेश की राजनीति में पहले पायदान पर है। यह बदलाव इसलिए हुआ क्योंकि लगभग सभी दलों ने गैरयादव ओबीसी को अपने पाले में लाने की भरपूर मेहनत की। इसका एक नतीजा यह हुआ कि जिस सपा को यादव राजनीति का पर्याय माना जाता है उसने कुर्मी वोटबैंक में जोरदार सेंध लगा दी। इसका नुकसान भाजपा को हुआ। भाजपा को सत्ता तो मिल गयी लेकिन अपने कोर वोटरों के छिटकने से उसकी चिंता बढ़ गयी है।

कुर्मी समुदाय के 41 विधायक, यादव समुदाय के 27

इस बार पिछड़े समुदाय में सबसे अधिक कुर्मी जाति के 41 विधायक जीते हैं। यादव समुदाय दूसरे स्थान पर है और उसके 27 विधायक ही जीते हैं। यह थोड़ा चौंकाने वाला परिणाम है क्योंकि यादव समुदाय की आबादी कुर्मी समुदाय से अधिक है। इस बार कुर्मी समाज के जो 41 विधायक जीते हैं उनमें 22 भाजपा के, 13 सपा के और एक कांग्रेस के हैं। वैसे भाजपा गठबंधन के 27 कुर्मी विधायक हैं। 2017 में भाजपा के 26 कुर्मी विधायक थे जब कि सपा के केवल 2 थे। इस लिहाज से सपा ने इस बार भाजपा के मजबूत वोट बैंक में जोरदार सेंध लगायी है। अखिलेश यादव सपा के पुराने राजनीतिक पैटर्न को बदल रहे हैं। वे अब सपा को यादववाद के ठप्पे से मुक्त करना चाहते हैं। उनकी यह कोशिश सफल होती दिख रही है। कुर्मी विधायकों की संख्या 2 से 13 पर पहुंचा कर अखिलेश यादव ने सपा का कायकल्प कर दिया है। इस बार सपा में यादव (24) से अधिक मुस्लिम विधायक (32) हैं।

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अपना दल (एस) भाजपा को वोट ट्रांसफर नहीं करा पाया

कुर्मी समुदाय को भाजपा का कोर वोटर माना जाता रहा है। ओबीसी समूह में यादव के बाद कुर्मी दूसरी सबसे प्रमुख जाति है। कुर्मी समुदाय 2014 से ही भाजपा की जीत में सहायक रहा है। लेकिन इस बार उसके कुर्मी विधायकों की संख्या में चार की कमी हो गयी। ऐसा क्यों हुआ ? कुछ जानकारों का कहना है कि कुर्मी समुदाय की राजनीति करने वाला अपना दल (एस) उस हद तक वोट ट्रांसफर नहीं करा पाया जितनी की उम्मीद की गयी थी। अपना दल को भाजपा से तो फायदा हुआ। लेकिन भाजपा को अपना दल से वह फायदा नहीं मिला। सिराथू में केशव प्रसाद मौर्य को अगर कुर्मी समुदाय का भरपूर समर्थन मिला होता तो उनकी हार नहीं होती। सिराथू में केशव मौर्य करीब 7 हजार वोट से हारे। इसे कांटे का मुकाबला नहीं कहा जा सकता। सिराथू में कुर्मी वोटरों की निर्णायक स्थिति है। केशव प्रसाद मौर्य इस सीट पर मौर्य-कुर्मी के समीकरण से अपनी जीत आसान मान रहे थे। लेकिन सपा ने कुर्मी नेता पल्लवी पटेल (अनुप्रिया पटेल की बहन) को यहां से खड़ा कर उनकी उम्मीदों पर पानी फेर दिया। कुर्मी वोट में विभाजन हो गया जिसकी वजह से डिप्टी सीएम केशव मौर्य चुनाव हार गये। अनुप्रिया पटेल सिराथू में प्रचार करने गयीं थीं। लेकिन वे अपने समुदाय का वोट भाजपा को ट्रांसफर नहीं करा पायीं।

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कुर्मी वोट बंटने के कारण भाजपा के तीन मंत्री चुनाव हारे

यहां गौर करने वाली बात ये है कि कैशव मौर्य अलावा भाजपा के दो और मंत्री इसलिए चुनाव हार गये क्यों उन्हें आशा के अनुरूप कुर्मी वोटरों का समर्थन नहीं मिला। ग्रामीण विकास मंत्री रहे राजेन्द्र प्रताप सिंह उर्फ मोती सिंह पट्टी विधानसभा सीट पर चुनाव हार गये। इस सीट पर सपा ने कुर्मी उम्मीदवार, राम सिंह पटेल को उतारा था। राम सिंह पटेल कुख्यात डकैत ददुआ के भांजा हैं। इस सीट पर भी अधिकतर कुर्मी वोटर सपा की तरफ मुड़ गये। इसकी वजह से मंत्री राजेन्द्र प्रताप सिंह करीब 22 हजार वोटों से चुनाव हार गये। उसी तरह चित्रकूट सीट पर भाजपा के मंत्री चंद्रिका उपाध्याय को हार झेलनी पड़ी। इस सीट पर सपा के अनिल प्रधान पटेल ने भाजपा के मंत्री को हरा दिया। चित्रकूट विधानसभा क्षेत्र में सबसे अधिक ब्राहमण वोटर हैं और कुर्मी वोटर दूसरे स्थान पर हैं। पिछली बार भाजपा के चंद्रिका उपाध्याय ब्राह्मण- कुर्मी समीकरण से चुनाव जीत गये थे। लेकिन इस बार कुर्मी वोटों में बंटवारा हो गया जिससे चंद्रिका उपाध्याय चुनाव हार गये। इस बार सपा को कुर्मी वोटरों का व्यापक समर्थन मिला है। इसकी वजह से ही इस समुदाय के 13 सपा उम्मीदवार जीत हासिल कर पाये। सपा की यह कामयाबी, भाजपा की सबसे बड़ी चिंता बन गयी है।

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